जय सुभाष खण्ड काब्य
जय सुभाष’ खण्डकाव्य की कथावस्तु पर प्रकाश डालिए। या ‘जय सुभाष’ खण्डकाव्य का सारांश लिखिए।
या
‘जय सुभाष’ खण्डकाव्य की कथा संक्षेप में लिखिए।
या
“जय सुभाष’ का कथानक राष्ट्रभक्ति से पूर्ण है।” सोदाहरण समझाइए। “जय सुभाष’ खण्डकाव्य का कथानक स्पष्ट कीजिए।
या
‘जय सुभाष’ खण्डकाव्य हमें राष्ट्रीयता की प्रेरणा देता है। कथन की पुष्टि कीजिए।
या
‘जय सुभाष’ खण्डकाव्य की प्रमुख घटना का उल्लेख कीजिए।
प्रस्तुत खण्डकाव्य नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के व्यक्तित्व और आदर्श गुणों का परिचय प्रदान करने वाली एक सुन्दर रचना है। इस काव्य का सम्पूर्ण कथानक सात सर्गों में विभक्त है। इसका सर्गवार सारांश इस प्रकार है सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 ई० को कटक (उड़ीसा) में हुआ था। इनके पिता को नाम ‘जानकीनाथ बोस’ और माता का नाम ‘प्रभावती देवी’ था। बड़े होने पर सुभाष ने अपनी तीव्र बुद्धि का परिचय दिया। इन्होंने अपने परिश्रम एवं लगन से सभी शैक्षिक परीक्षाओं में उत्तम अंक प्राप्त किये। प्रेसीडेन्सी कॉलेज में पढ़ते समय ऑटेन नामक अंग्रेज प्रोफेसर द्वारा, भारतीयों की निन्दा सुनकर इन्होंने उसके गाल पर एक तमाचा मारकर स्वाभिमान, देशभक्ति एवं साहस का अद्भुत उदाहरण दिया। इन्होंने बी० ए० की परीक्षा तथा विदेश जाकर आई० सी० एस० की परीक्षा उत्तीर्ण की। महात्मा गाँधी और देशबन्धु चितरंजनदास से प्रभावित होकर सरकार द्वारा प्रदत्त आई० सी० एस० के उच्च पद को त्याग दिया और स्वतन्त्रता संग्राम में सम्मिलित हो गये। द्वितीय खण्डकाव्य के सर्ग में सुभाष के भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में सक्रिय भाग लेने का वर्णन है। सन् 1921 ई० में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में असहयोग आन्दोलन व्यापक रूप से चल रहा था। उन्हीं दिनों देशबन्धु जी ने एक नेशनल कॉलेज की स्थापना की, जिसका प्रधानाचार्य उन्होंने सुभाष को नियुक्त कर दिया। सुभाष ने छात्रों में देशप्रेम और स्वतन्त्रता की भावना जाग्रत की और राष्ट्र-भक्त स्वयंसेवकों की एक सेना तैयार की। ये पं० मोतीलाल नेहरू द्वारा स्थापित ‘स्वराज्य पार्टी के प्रबल समर्थक थे। इन्होंने दल के कई प्रतिनिधियों को कौंसिल में प्रवेश कराया। इन्होंने कलकत्ता महापालिका का खूब विकास किया। सरकार ने इन्हें अकारण ही अलीपुर जेल में डाल दिया। इनका अधिकांश जीवन कारागार में ही व्यतीत हुआ। खण्डकाव्य के तीसरे सर्ग की कथा सन् 1928 से आरम्भ होती है। सन् 1928 ई० में कलकत्ता के कांग्रेस के 46वें अधिवेशन में पं० मोतीलाल नेहरू को अध्यक्ष बनाया गया। इसी समय लोगों को सुभाष की संगठन-कुशलता का परिचय मिला। इसके बाद सुभाष को कलकत्ता नगर का मेयर निर्वाचित किया गया। इन्होंने पुनः सभाओं में ओजस्वी भाषण दिये, जिनको सुनकर इन्हें सिवनी, भुवाली, अलीपुर और माण्डले जेल में भेजकर यातनाएँ दी गयीं, जिससे इनका स्वास्थ्य बिगड़ गया। इन्हें स्वास्थ्य-लाभ के लिए पश्चिमी देशों में भेजा गया। इन्होंने वहाँ ‘द इण्डियन स्ट्रगल’ नामक पुस्तक लिखी। भारत लौटने पर अगले वर्ष हीरापुर के कांग्रेस अधिवेशन में इन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाकर सम्मानित किया गया। चतुर्थ सर्ग में हीरापुर अधिवेशन से लेकर ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’ की स्थापना तक का वर्णन है। ताप्ती नदी के तट पर बिठ्ठल नगर में कांग्रेस का इक्यावनवाँ अधिवेशन हुआ। इन्हें अधिवेशन का अध्यक्ष बनाकर सम्मानित किया गया। इससे आजादी का आन्दोलन और अधिक तीव्र हो उठी। इसके बाद त्रिपुरा में कांग्रेस का अगला अधिवेशन हुआ। इसमें कांग्रेस अध्यक्ष के चयन में दो नेताओं में मतभेद हो गया। उस समय कांग्रेस को विघटन से बचाने के लिए सुभाष ने कांग्रेस से त्यागपत्र देकर ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’ (अप्रगामी दल) की स्थापना की। अब सुभाष सबकी श्रद्धा और आशा के केन्द्र बनकर सबके प्रिय नेताजी’ बन गये थे। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि अपनी मातृभूमि को मुक्त कराने के लिए सुभाषचन्द्र बोस अंग्रेज सरकार की यातनाओं को निरन्तर सहन करते रहे। पञ्चम सर्ग में सुभाष के छद्मवेश में घर से भाग जाने की कथा का वर्णन है। सुभाष जब घर में नजरबन्द थे, तब सरकार ने इनकी समस्त गतिविधियों पर कड़ा प्रतिबन्ध लगा रखा था। 15 जनवरी, 1941 ई० को जाड़े की अर्द्ध-रात्रि में दाढ़ी बढ़ाये हुए, ये एक मौलवी के वेश में पुलिस की आँखों में धूल झोंककर कल गये और फ्रण्टियर मेल से पेशावर पहुँच गये और वहाँ से बर्लिन। बर्लिन में इन्होंने ‘आजाद हिन्द फौज’ की स्थापना की। दूर रहकर स्वतन्त्रता-संग्राम का नेतृत्व करना कठिन जानकर ये पनडुब्बी द्वारा टोकियो पहुँचे। जापानियों ने इन्हें पूरा सहयोग दिया। सहगल, शाहनवाज, ढिल्लन और लक्ष्मीबाई ने वीरता से इसे सेना का नेतृत्व किया। सुभाष ने दिल्ली चलो’ का नारा हर दिशा में गुंजित कर दिया। ‘आजाद हिन्द फौज’ का हर सैनिक स्वतन्त्रता संग्राम में जाने को उत्सुक था। षष्ठ सर्ग में ‘आजाद हिन्द फौज के भारत पर आक्रमण तथा प्राप्त विजय का वर्णन है। सुभाष ने ‘आजाद हिन्द फौज के वीरों को दिल्ली चलो’ और ‘जय हिन्द’ के नारे दिये। इन्होंने “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा” कहकर युवकों का आह्वान किया। आजाद हिन्द सेना ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये और उनके शिविरों पर चढ़ाई करके कई मोर्चे परे उनको अविस्मरणीय करारी हार दी। सप्तम सर्ग में द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी तथा जापान की पराजय की चर्चा की गयी है। संसार में सुख-दु:ख और जय-पराजय का चक्र चलता रहता है। अंग्रेजों का पलड़ा धीरे-धीरे भारी होने लगा। आजाद हिन्द फौज की भी जय के बाद पराजय होने लगी। अगस्त, 1945 ई० में जापान के हिरोशिमा और नागासाकी नगरों पर अमेरिका द्वारा अणुबम गिरा दिया गया। जापान ने मानवता की रक्षा के लिए जनहित में आत्मसमर्पण कर दिया। 18 अगस्त, 1945 ई० को ताइहोक में इनका विमान आग लगने से दुर्घटनाग्रस्त हो गया और सुभाष भी नहीं बच सके। जब तक सूर्य, चन्द्र और तारे रहेंगे, भारत के घर-घर में सुभाष अपने यश के रूप में अमर रहेंगे। उनकी यशोगाथा नवयुवकों को त्याग, देशप्रेम और बलिदान की प्रेरणा देती रहेगी।
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